भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
भोगा हुआ अतीत / रामकिशोर दाहिया
Kavita Kosh से
जंगल-चिड़ियाँ
फूल-पत्तियाँ
नाव-नदी
पर गीत लिखूँगा
भूख-गरीबी, शोषण दाबे
निकलूँ तब !
परतीत लिखूँगा
संत्रासों की उड़ी
नींद को
लिये गोद में
बैठीं रातें
मुस्कानों की
सिसकी कहतीं
बनती
जीभ रहीं फुटपाथें
आमद बढ़े
ख़ुशी की थोडा
ईंटे वाली भीत लिखूँगा
आरक्षित हैं
लोग वहीं पर
लगे हाथ
न दिखे तरक्की
चढ़ी मूड़ पर
नई योजना
गई पुरानी गुल कर बत्ती
चोंच-दबाये
दाना डाले
बगुला भक्ति प्रीत लिखूँगा
छीन धरा
को नहीं छोड़ती
हवा रुन्धती
रकवा पूरा
सहमी-सहमी
लाचारी है
बात-बात पर बल्लम-छूरा
वर्तमान से
जूझा हूँ फिर
भोगा हुआ अतीत लिखूँगा