भोर हो जाएगा / ओमप्रकाश सारस्वत
दूर तम न हुआ, रोशनी न हुई
साथी फिर सोच क्या
भोर हो जाएगा
रफ्ता-रफ्ता यह भी रात ढल जाएगी
प्राची का रंग, शर्मीला हो जाएगा
रात ने कितने ही, चाँद हों पी लिए
पर थका इंदु, उगने से नभ पर नहीं
आस के मुख ने कई दुख, निगल छोड़े हैं
तुम बढ़ो आस्था को लिए सब कहीं,
ऐ युवाशक्ति ! निर्माण में गर जुटो
ध्वंस का सिर स्वयं नीचा हो जाएगा
फूटेगी रागिनी विश्व के कण्ठ से
पंथ पर इक नया सूर्य उग आएगा
देख जो तेरे घर के हैं दीपक वे ही
आज श्मशान को अग्नियां दे रहे
जल रहीं, मरण की, धधकतीं वह्नियां
स्वाहा के मंत्र से, आहुतियां दे रहे
मित्र ! इस तेरे परिवेश में व्याप्त विष-
क्षोभ, संत्रास की जो कुटिल वृत्तियां
पहले उन से निपटने का संकल्प कर
फिर कुलुषमन का मल दूर हो जाएगा
देश की आस को आज क्या हो गया?
जो भटकती चौराहों पे दम तोड़ती,
मोड़ती-मुख तनिक से भी दायित्व से
मेरी किरणों के सूरज को क्या हो गया?
गर यह सूरज भी नभ में कहीं बुझ गया
देश की आँख की ज्योति मर जाएगी
चेतना, भस्म से दीप्तिकण मांगेगी
तिलक, फिर रात के माथ को जाएगा
रे ! अभी नीड़ निर्माण भी न हुआ
तुम अभी से लुकाठा लिए फिर रहे
शक्ति का अपव्यय हो रा किसलिए
अर्थी क्यों उठ रही भक्ति का शव लिए
प्रश्नों के सीनों पर चल रहीं गोलियां
और समाधान क्यों गर्भ में मर रहे
तुम इन्हें गर जिवाने की तरकीब दो
नाश का नाम, निर्माण हो जाएगा।
</poem>