सर्योदय से सूर्यास्त तक
अपने बदन पर
कपड़ों का भार
ढोते-ढोते
थक जाता है आदमी।
सांझ ढले
उनके लिए
दीवारों पर
लम्बाई में उभरी
खूंटियां तलाशता है आदमी
मगर
दुनिया का भार
अपने कंधों पर
ढो लेने का
दिन भर
भ्रम पालता है आदमी।
सर्योदय से सूर्यास्त तक
अपने बदन पर
कपड़ों का भार
ढोते-ढोते
थक जाता है आदमी।
सांझ ढले
उनके लिए
दीवारों पर
लम्बाई में उभरी
खूंटियां तलाशता है आदमी
मगर
दुनिया का भार
अपने कंधों पर
ढो लेने का
दिन भर
भ्रम पालता है आदमी।