मंगल विलय / सोम ठाकुर
इस निरभ्रा चाँदनी में
आज फिर गुँथ जाए तेरी छाँह, मेरी छाँह
नयन - कोरों पर,
लातों के मुक्त छोरों पर
टूटती हैं नीम से छनती किरण
रुक गया हो रूप निर्झर पर, कि जैसे
अमरता का क्षण,
एक तरलता उष्णता हैं --
जो कि राग -- रागनाप ठंडे बदनो को खोलती हैं
वारुणी --संज्ञावती हैं,
आत्म --प्लावक मानसर में
आज फिर बुझ जाए तेरा दाह, मेरा दाह ।
जो कछारों में
न बोला नमस्करों में
अर्थ वह इस प्राण का चंदन,
महकता हैं, पर नही करता
किसी अभिव्यक्ति का पूजन,
आत्मजा हर लहर मन की
कुछ अनामा उर्जामाय लय तरंगों में थकूँ मैं,
स्रष्टि को दोहरा सकू मैं,
शब्द गर्वित जो नही वह
आज फिर चुक जाए तेरी चाह में, मेरी चाह ।
दूर के वन में
दिशाओं के समापन में
काँपता है एक सूनापन में,
हर प्रहार स्वीकारता जाता
द्रगों में डूबने का प्रन
यह विमुक्ता देह मेरी ,
दो मुझे तुम रूप--क्षण का स्पर्श,
चेतन तक गलूँ मैं
और अनुक्षण जन्म लूँ मैं,
ओ निमग्ने !
एक मंगल--विलय तक मुड़ जाए, तेरी राह, मेरी राह ।