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मंज़र दिन का देख रात में / हरि फ़ैज़ाबादी
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मंज़र दिन का देख रात में
सूरज उलझा ख़यालात में
सिर्फ़ जमीं ही नहीं आज है
आसमान भी मुश्किलात में
देखो मत हर जगह तमाशा
फँस जाओगे वारदात में
शादी है या बरबादी ये
दूल्हा दस में दुल्हन सात में
नाहक़ ही हम उलझन में थे
ग़ज़ल हो गयी बात-बात में
जीवन नीरस हो जाता गर
होते सुख ही सुख हयात में
दब जाते हैं हर सवाल ख़ुद
नोन-तेल के सवालात में
काँटा ही है शख़्स तीसरा
दो लोगों की मुलाक़ात में