मछलियों का शोकगीत / पूनम वासम
झपटकर धर नही लेती कुटुमसर की गुफ़ा में दुबक कर बैठी अन्धी मछलियाँ अपनी जीभ पर
समुद्र के खारे पानी का स्वाद
इनकी गलफड़ों पर अब भी चिपका है वही
हज़ारों वर्ष पूर्व का इतिहास !
कि काँगेर घाटी में उड़ने वाली गिलहरी के पँखों पर
अक्सर उड़ेल आती हैं मछलियाँ,
सँकेत की भाषा मे लिखी अपनी दर्द भरी पाती की स्याही ताकि बचा रहे गिलहरी की पाँखों का चितकबरापन
बोलने वाली मैना को सुबक-सुबक कर सुनाती हैं
काली पुतलियों की तलाश में भटकती अपनी नस्लों के सँघर्ष की कहानी,
ताकि मैना का बोलना जारी रहे पलाश की सबसे ऊँची टहनी से ।
मछलियाँ तो अन्धी हैं पर,
लम्बी पूँछ वाला झींगुर भी नही जान पाया अब तक कुटुमसर गुफ़ा के बाहर ऐसी किसी दुनिया के होने का रहस्य
कि जहाँ बिना पूँछ वाले झींगुर चूमते हैं सुबह की उजली धूप
और टर्र-टर्र करते हुए गुज़र जाते है
कई-कई मेंढ़कों के झुण्ड
गुफ़ा के भीतर
शुभ्र-धवल चूने के पत्थरों से बने झूमरों का सँगीत सुनकर
अन्धी मछलियाँ भी कभी-कभी गाने लगती हैं
घोटुल में गाया जाने वाला
कोई प्रेमगीत !
गुफ़ा के सारे पत्थर तब किसी वाद्ययन्त्र में बदल उठते है
हाथी की सूण्ड की तरह बनी हुई
पत्थर की सँरचना भी झूम उठती है
सँगीत कितना ही मनमोहक क्यों न हो
पर एक समय के बाद
उसकी प्रतिध्वनियाँ कर्कशता में बदल जाती हैं ।
मछलियाँ अन्धी हैं
बहरी नही,
कि मछलियाँ जानती है सबकुछ
सुनती है सैलानियों की पदचाप
सुनती हैं उनकी हँसी-ठिठोली
जब कोई कहता है
देखो-देखो यहाँ छुपकर बैठी है
ब्रह्माण्ड की इकलौती रँग-बिरँगी मछली ।
तब भले ही कुटुमसर गुफ़ा का मान बढ़ जाता हो
अमेरिका की कार्ल्सवार गुफ़ा से तुलना पर कुटुमसर फूला नही समाता हो
तब भी कोई नहीं जानना चाहता
इन अन्धी मछलियों का इतिहास
कि जब कभी होती हैं एकान्त में
तब दहाड़े मार कर रोती हैं मछलियाँ ।
इनकी आँखों से टपकते आँसुओं की बून्द से चमकता है गुफ़ा का बेजान-सा शिवलिंग !
कोई नही जानता पीढ़ियों से घुप्प अन्धेरों में छटपटाती
अन्धी मछलियों का दर्द
कि लिंगोपेन से माँग आई अपनी आज़ादी की मन्नतें
कई-कई अर्जियाँ भी लगा आईं बूढ़ादेव के दरबार में ।
अन्धी मछलियाँ जानती हैं
उनकी आज़ादी को हज़ारों वर्ष का सफ़र तय करना
अभी बाक़ी है
इसलिए भारी उदासी के दिनों में भी
कुटुमसर की मछलियाँ
सायरेलो-सायरेलो जैसे गीत गाती हैं ।