मधुस्रोत / रामचंद्र शुक्ल
किस अतीत-पट से छन-छनकर,
रूप अमित स्मृति-मधु बन-बनकर;
खुले नयनपथ की धारा में,
कभी टपककर घुल जाते हैं।
किसी झलक को ललक-भरे,
हम भूल आपको अपनाते हैं;
बिछडा-सा कुछ मिल जाता हैं,
जीवन जग में खिल जाता हैं ।।1
किस अतीत के अंचल से ढल,
संगराग के स्रोत अनर्गल;
काट काल के बाँध, वासना की,
अखंड अनुगति झलकाते।
चिर सहचर रूपों के पथ में,
बार बार हैं हमें बहाते?
जहाँ सगी सुषमा हम पाते,
नहीं चकित होकर रह जाते ।।2
यही पुरानी प्रीति हमारी,
जगकर कर देती हैं प्यारी;
जैसी कुसुम-कलित वन-वीथी,
वैसी ही ऊसर की खाड़ी।
जैसी अमल मधुर निर्झरिणी,
वैसी ही ऊसर की खाड़ी;
वह जो केवल चमक-चाव हैं
निरा कुतूहल बाल-भाव हैं ।।3
युग-युग के रूपों में सनते,
भाव चले आते हैं बनते।
जिस शोभा के लिए हृदय में,
पहले से कुछ प्यार धरा हैं।
काव्यमयी रसमयी वही हैं,
कहीं न कुछ खोटा, न खरा हैं;
यही प्यार जिसमें जितना हैं,
जाग्रत वह भावुक उतना हैं ।।4
झलक, छलक-बाहर भीतर की,
नहीं एक की, भूतल-भर की;
नहीं आज की युग युगादि की,
साथ-साथ चलती आती हैं।
एक अखंड नित्य जीवन की,
रस-धारा ढलती आती हैं;
जग इसकी घूँटें पाते हैं,
जग होकर हम जग जाते हैं ।।5
यों ही हम उठते, गिरते थे,
कभी किसी युग में फिरते थे;
इसी किसी बनखंडी की-सी,
पंकिल कहीं, कहीं पथरीली।
कहीं धातु रंजित फिर श्यामल,
गुछी दूब काई से गीली;
विषम भूमि में भूले-भूले,
वन-कुसुमों में फूले-फूले ।।6
इन्हीं कछारों में लहराते,
गाये यों ही बिखरी पाते;
कूजों की किलकार गूँजती,
कँकरीले टीलों पर आती।
ऊँचे कटे कगार भेदकर,
आड़ी ऐंठ जहाँ दिखलाती;
कोई डाल हमारे सिर पर,
वहीं बैठ जाते थे थककर ।।7
वन-कुटीर में इसी निराले,
पडे हुए थे डेरे डाले;
कभी कड़कती हुई अंधेरी,
में विद्युल्लतिका बल खाती।
पल पल पर दीपित रंध्रों से,
द्रवत् स्वर्ण की झड़ी झ्रकाती;
बाहर वृक, चीते चिल्लाते,
भीतर थे हम बात चलाते ।।8
तुम भी, ग्राम! खुले सपने हो,
रूप-रंग में वही बने हो;
कटी-बँटी हरियाली में तुम,
वैसे ही तो जडे हुए हो।
उठे तरल-श्यामल-दल गुंफित,
अंचल में ही पडे हुए हो;
धरती माता की मटियाली।
भरी गोद यह रहे निराली! ।।9
अरुण दिगंचल से प्राची के,
प्रभा फूटकर तम में फीके;
दमकाती द्रुमभाल उतरती,
मीलित नयनों पर झुँझलाती।
हरी-हरी गीली दूबों पर,
सरक-सरक मुक्ता छहराती;
बालक घर से निकल रहे हैं,
अब भी उन पर उछल रहे हैं ।।10
अब भी जब-जब जोती जाती,
धरती सोंधी महक उड़ाती;
धानी लहरों पर छिटकी हैं,
सूही छींटें-सी ललनाएँ।
हरियाली की सीमा पर हैं,
झुकी स्निग्ध साँवली घटाएँ;
शीतलता नयनों में छाती,
मन बगलों के संग उड़ातीं ।।11
ये खपरैल और ये छप्पर,
गीले सोंधे मिट्टी के घर;
हमें न जाने कब की मीठी,
मीठी सुध में सुला रहे हैं।
अब भी यहाँ किसी भोली को,
आशा में दिन झुला रहे हैं;
बैठ द्वार पर जो बिछोहती,
परदेसी की बाट जोहती ।।12
ऊपर किसी डाल पर धोई,
पल भर बैठ पपीहा कोई;
धुन बाँधे “पी कहाँ, पी कहाँ”,
आग्रह-भरा पूछ जाता हैं।
फिर-फिर अपने चढ़ते सुर की,
गूँज-मात्रा उत्तर पाता हैं;
अब भी यहाँ पुराने नाते,
यों ही कुछ हैं निभते आते ।।13
मंदाकिनी-सलिल से सींची,
चित्राकूट की ऊँची-नीची;
भक्ति-लहर-सी भूमि भिगोती,
भारतीय मन भास रही हैं।
कुरवक, ककुभ, पियाल, लोधा्रपर,
लतिकाओं की ललक वही हैं;
राम-रमी सुषमा छाई हैं;
कुछ आँखों की बन आई हैं ।।14
वन-वीथियाँ यहाँ की सारी,
जिन्हें रामपद-अंकित प्यारी;
लगती हैं, उनके समीप ये ,
झाड़ कटीले भी हैं प्यारे।
हैं उनके ही वंशज ये जो,
कभी राम को चुभे हमारे;
इस नाते की चोट जिन्हें हैं,
चित्राकूट कुछ और उन्हें हैं ।।15
सरित सलिल को झुके चूमते,
अंबुवेत हैं जहाँ झूमते;
वात-प्रकंपित जहाँ केतकी के,
कानन में मड़ मड़ होती।
कारंडव, बक लिए कूल पर,
मंद मंद बहती हैं सोती;
जल में घुसी कुडौल शिला पर,
जहाँ मयूर नाचते आकर ।।16
भरे सरोवर में अति निर्मल,
जहाँ प्रस्फुटित पंकज के दल;
चंद्र-छटा में खिली कुमुदिनी,
धवल मंद मृदु हास दिखाती।
जहाँ शांत गंभीर नीर में,
द्रुमराजी हैं छवि दुहराती;
भटके घन खंडों की काया,
कहीं फेंकती श्यामल छाया ।।17
मंजरियों के मद में माते,
जहाँ आम फूले न समाते;
दे सौरभ-संदेश देश में,
आकुल अलिकुल को भरमाते।
केकिल के कंठों में भर-भर,
निज रसाल मधु हैं ढलवाते;
दिक्-दिक् की आँखें मतवाली
धरती हैं किंशुक की लाली ।।18
जहाँ-जहाँ ये रूप खडे हैं,
जहाँ-जहाँ ये दृश्य अडे. हैं;
कालिदास, भवभूति आदि के,
हृदय वहाँ पर मिल जाते हैं।
एक अखंड हृदय भारत का,
अविच्छिन्न हो हम पाते हैं।
भाव-भूमि का भरत-खंड यह,
सदा, भारती! तू भरती रह! ।।19
कहीं हृदय अपना समेटकर,
कोश-कीट बन जाय न तू नर!
इसी हेतु अविरल मधु धारा,
द्वार-द्वार पर टकराती हैं।
तेरे रचे हुए जालों के,
बाहर तुझे खींच लाती हैं;
भाव-रूप में भूतों में सब,
रमने का दिखलाती हैं ढब ।।20
आवरणों को काट-काटकर,
व्यापारों को तेरे, हे नर!
मूल रूप में यह धारा जब,
तेरे सम्मुख धर देती हैं।
सच्चे, खरे भाव की चिलकन,
चंचल तुझको कर देती हैं;
जमी हुई छँटती हैं काई,
प्रकृत रूप पड़ते दिखलाई ।।21
कागज की परतों के भीतर,
लिपटा हुआ लोभ चट खुलकर;
कुत्तों की छीना-झपटी बन,
निरा सामने आ जाता हैं।
दौड़ धूप दफ्तर की बंदर,
डाल-डाल पर दिखलाता हैं;
कहीं धातु के खंड दिलाना,
हुआ हाथ से अन्न खिलाना ।।22
('सुधा', अक्टूबर, 1929)