ख़तरे की भनक मिलते ही
मैं रेंगने लगता हूँ
पीछे की ओर —
सरकती जाते हैं
मेरे चूतड़
धीरे-धीरे,
जगह बनाते हैं
सूराख़ के अन्दर ।
अब मैं आश्वस्त हूँ —
सिर घुमाकर देखता हूँ
खुले आसमान से
आते, न-आते ख़तरों को ।
चीख़-चिल्लाकर
मैं अपनी भड़ास निकाल सकता हूँ ।
ज़रूरत पड़ने पर
मेरे चूतड़
मुझे खींच ले जाएँगे
सूराख़ के अन्दर ।