भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मन, स्वप्न और सूरज / प्रांजल धर
Kavita Kosh से
दिमाग़ में खुलता
उबलती रोशनी का उबलता सूरज
जाग उठतीं
बर्फ़ पर लेटी साधारण कामनाएँ
जाग जाते मुर्दा स्वप्न अनेक,
सच होना था जिन्हें ।
मन खोजता कहीं –-
सुन्दर हरियाली को,
एक रात को, जो बारिश से भीगी हुई हो,
एक दोपहर को,
तपी हुई हो जो सूरज की आँच से ।
कुछ न लगता हाथ
निगाहें बार-बार लौट आतीं
कंक्रीट के जंगलों से
बड़े-बड़े भवनों से टकराकर ।
भटका नज़र आता हर आदमी
जाने क्यों !
भटक जाती हर राह जाने कैसे !
दिमाग़ी सूरज मार डालता सेंक-सेंककर
मन की कोंपल को;
सुप्त हो जातीं कामनाएँ,
मर जाते स्वप्न, रुक जाता मन ।