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मनदीप कौर-1 / गिरिराज किराडू
Kavita Kosh से
सामने हवा होती है
और दूर तक फैली पृथ्वी
अपने को पूरा झोंककर मैं दौड़ती हूँ
हवा के ख़िलाफ़
और किसी प्रेत निश्चय से लगाती हूँ छलांग, उसी हवा में
मानो उड़कर इतनी दूर चली जाऊँगी
कि ख़ुद को नज़र नहीं आऊँगी
पर आ गिरती हूँ इसी पृथ्वी पर
इतनी पास मानो यहीं थी हमेशा -
ऎसी ख़फ़गी होती है
अपने आप से
और इस मिट्टी से !
अब तक इतना ही पता चला हैअपने से खफा हुए बिना नहीं हूँ मैं
मुझे नहीं पता ठीक से
पर अपने से दोस्ती करने के लिए
तो नहीं ही लिखती हूँ मैं।
कविता भी एक असफल छलांग है
और मैं खफा हूँ इससे भी