भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मनस्थिति-2 / लोग ही चुनेंगे रंग
Kavita Kosh से
कोई देखे तो हँसेगा
जैसे शून्य की कहानी
सुन मैं हँसा
बाहर घसियारों की मशीनें
चुनाव का शोर
मैदान में खेल
शोर आता दिमागी नसें कुतरता हुआ भीतर
शून्य की तकलीफ अपने वजूद पर खतरे की
मुझे सुनाई जैसे सुनाई खुद से हो
जाने कौन हँसा
मैं या शून्य.