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मन का अंधकार / रेखा राजवंशी
Kavita Kosh से
लगता है रात होने वाली है
अचानक मेरे मन का अंधकार
मेरे खिड़की की
सीमा को तोड़ते हुए
अगर के धुंए की तरह
बाहर सर्वत्र व्याप्त जा रहा है
धुंआ, धुंआ है
किसी भी प्रतिबन्ध से मुक्त
किसी भी दिशा में जा सकता है
उसकी गति मात्र वायु का निश्चय है
पर मैं अपने अंदर के धुंए का स्रोत
चाहकर भी ढूँढ नहीं पाती
बस महसूस करती हूँ
तपन, घुटन और आँखों में इसकी चुभन
न गति पर प्रतिबन्ध है
न दिशा का निश्चय
तोड़ देना चाहती हूँ भ्रम
मिटा देना चाहती हूँ संशय
और भूल जाना चाहती हूँ।
कि रात होने वाली है।