मन का विश्वास / बिन्देश्वर प्रसाद शर्मा ‘बिन्दु’
अल्लाह ईश्वर यहीं हैं भाई
नानक, यहीं पर ईसा साँई।
नाम अलग या अलग है भाषा
इंसान यहीं पर, यहीं कसाई।
वाह रे भैया वाह रे बाबू
भ्रम में, खोज रहे परछाई।
तनिक विश्वास नहीं है मन में
अपनी कहें या उसे पराई।
सभी को बांटा जात – पात में
इनमें इसलिए इतना खाई।
अलग – थलग है धर्म बनाया
उसने, छोड़ा कहाँ अच्छाई।
भुल – भुलैया में सबको रखके
ऐसी उसने रीत अपनाई।
अपना ही उल्लू सीधा करना
उसी ने ही तो है सिखलाई।
पाखंडी गुरुओं की देन है
जिसने भी ये आग लगाई।
सभ्यता संस्कृति जिन गुरुओं ने
सामाजिकता की पाठ पढ़ाई।
उन गुरुदेव को नमन है मेरा
जिन्होनें अपना धर्म निभाई।
आज कलह इतना है फैला
घर तो घर, बाहर तक लड़ाई।
भूल कर अब उस परम्परा को
अब करने लगे हैं बेवफाई।
रिश्ते – नाते रह गये नामों के
इनके बीच भी ठगी – ठगाई।
बचना भी अब मुश्किल है”बिन्दु”
तुम अब जितना भी करो उपाई ।