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मन की झील में / रश्मि विभा त्रिपाठी

मेरे मन की झील में
तुमने फेंका था एक कंकड़
अपने प्रेम का
जिससे तरंगित हुई थी मेरी आत्मा
प्रेम में सर्वस्व अर्पण करने के
नियम पर चलते- चलते
मैं बन गई नदी,

और...
ढोते- ढोते मुगालते
तुम
बन गए पहाड़
मुझसे पीछे छूटकर
तुम दरक गए
तुम प्रेम के पथिक थे नए
तुम्हें ढंग होता चलने का
प्रेम के साँचे में ढलने का
तो
मैं जब नदी बनी थी
तुम बनते सागर
और तब
न केवल
हम एक दूजे में समा जाते
बल्कि आधुनिक प्रेमियों के हाथ में
प्रेम की दुनिया तक पहुँचने का
नक्शा थमा जाते।