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मन ये दीपक-सा / चन्द्रेश शेखर
Kavita Kosh से
प्रेम की तुमने ऐसी लगाई थी लौ
मन ये दीपक सा दिन-रात जलता रहा
क्या हुआ जो अगर तुम हमें न मिले
तुमको क्या दोष दूँ, तुमसे कैसे गिले
प्रेम विनिमय नहीं देह से देह का
तन नहीं न सही मन तो मन से मिले
पर तुम्हारा तो मन एक अखबार था
रोज जिसका कलेवर बदलता रहा
लोक-लज्जा तुम्हें बेडियाँ बन गयीँ
मैँने अनुभूतियोँ को लगाया गले
तुम भी मजबूर थे हम भी मजबूर थे
तुम तुम्हारी डगर हम हमारी चले
तुमने दुनिया चुनी तुम निखरती रही
मैंने कविता चुनी उनमें ढलता रहा