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महाप्रभु / मनोज कुमार झा
Kavita Kosh से
एक पतंग नाचती बहुत ऊपर
बढ़ती जाती हवाओं को धकियाती हुई
चमकती किसी खबर का कोई चटख रंग ले उधार
कुबेरों की लार सूखी कागज कड़कड़
सूत नहीं कोई माँझा नहीं चरखी नहीं
कोई संग नहीं इस धरती से
इसकी उड़ान ही फाड़ेगी इसे किसी धूप वाले दिन में
गिरेगी धरती पर धड़ाम
भृत्यगण दौड़ेंगे बच्चों के प्रबंधन में
वे रोएँ कि उन्हीं के लिए वह घूमता रहा आकाश-पाताल
कोई नहीं रोएगा
कोई निकल जाएगा मूढ़ी फाँकने
कोई खेलने कंचा
कोई ढूँढ़ने गेंद उस सुदूर झाड़ी में।