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माँ अब भी जोहती है / राकेश कुमार पटेल

ऐसा नहीं है कि माँ को कोई दुख है
लेकिन जब घर जाकर वापस लौटता हूँ
माँ रोती है
माँ तब भी रोई थी
अपने नीम के पेड़ के नीचे खड़े होकर
अपने घूँघट में आँसुओं को छुपाकर
उस दूर कोने तक जहाँ से मुड़ने के बाद
माँ नहीं दिखती थी

हम में हिम्मत नहीं थी कि मुड़के देख सकें माँ को
माँ हर बार रोती थी
गठरियों में बाँधते हुए चावल, आटा और दाल

शहर पहुँचते ही
दीवार पर टँगे कैलेण्डर की तारीख़ों में
खिंच जाता था एक गोला
अगली बार कब जाना है
माँ से मिलने
यह जानते हुए भी कि माँ फिर रोएगी
 
माँ एक-एक कर हमको भेजती रहती है शहर
और रोती रहती है हर बार
हमको विदा करके ।