माँ काहे मैं हुई बड़ी॥
गली, सड़क, बाजारों में भी, 
अब लगता है डर। 
तू भी व्याकुल रहती है, मैं
कब लौटूँगी घर। 
आशंकित आँखें द्वारे पर, 
हर पल रहें गड़ी। 
नुक्कड़ पर चौराहों पर हैं, 
मुश्किल शब्द सहे। 
भूखी आँखों से वह मेरे, 
तन को नाप रहे। 
लड़की हूँ या वस्तु सरीखी, 
सोचूँ खड़ी-खड़ी। 
यह समाज या कोई जंगल, 
माँ तू ही बतला। 
लाज हुई शीशे के जैसी, 
कैसे दूँ झुठला। 
टूट नहीं जाये यह शीशा, 
दुविधा घड़ी-घड़ी।