माँ का आँचल / आशा कुमार रस्तोगी
आ के सँसार मेँ, ममतामयी मूरत पाई,
लुटाने प्यार को, हर वक्त मेरी माँ आई।
गिरना, उठना, या फिर चलना भी सिखाने आई,
पहला अक्षर भी सिखाने, वो फ़क़त ख़ुद आई।
"माँ" पुकारा जो पहली बार था, फ़क़त मैंने,
हुई पागल ख़ुशी से, आँँख थी छलक आई।
नींद आई न, तो वह लोरी सुनाने आई,
आ गई नींद, तो "आँचल" वह ओढ़ाने आई।
माँ के "आँचल" मेँ ही, हर दर्द की दवा पाई,
जब ज़रूरत पड़ी, हर वक़्त मेरी माँ आई।
सर्द इक रात थी, जब माँ को पुकारा मैंने,
सोई लगती थी, पर आवाज़ न कोई आई।
दफ़्फ़तन ख़्वाब मेँ, इक बार वह मेरे आई,
हाथ सिर पर था रखा, आँख भी थी भर आई।
बोली मुझसे, कोई तक़लीफ़ तो नहीं तुझको,
उसके "आँचल" के तले, मैंने शिफ़ा थी पाई।
गर उदासी भी कभी, मन को घेरने आई,
दीप "आशा" का जलाने भी, उसकी याद आई।
माँ की ख़िदमत से ही, यूँ शाद-ए-नसीबी पाई,
दुआ से उसकी ही, है ज़ीस्त मेँ बरकत आई।