भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मां की आंखों में / ओम पुरोहित ‘कागद’
Kavita Kosh से
मेरी मां की आंखों में
पहले
सपने थे
लेकिन अब
कैद है अनुभव।
मां
जब
अनुभव पाल रही थी
मै
उसके
सपनों में
पल रह था।
अब
मैं
सपनों से बहुत दूर हूं
और
अनुभव मांग रहा हूं
लेकिन
बंद हैं
मां की दोनों आखें
जैसे
रखना चाहती हो उन्हें
संजोकर।