श्वेत कमाल और सुभ्र वसन
धवल हंस पर बिछा है आसन
वीणा के नव सप्त स्वरों से,
गूँजे धरा-गगन (1) मातु।
माँ, विधा-बुद्दि की सागर
सर्व कलाओं में है आगर
अन्त: बाह्य प्रकाशित करने,
कलुष का करती दमन (2) मातु।
आस्था से जो भी ध्याता।
बिन माँगे सब कुछ है पा जाता
तेरी अनुग्रह से होते हैं,
पूरे सभी सपन (3) मातु।
जो भी शब्द प्रशाद में पाए
जोड़-जोड़ के गीत बनाए
भाव-भक्ति के साथ मातुश्री,
तेरे चरणों में अर्पण (4) मातु।