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मानसिक सन्‍ताप के कारण तन-क्षीण बनी / कालिदास

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आधिक्षामां विरहशयने संनिषण्‍णैकपार्श्‍वां
     प्राचीमूले तनुमिव कलामात्रशेषां हिमांशो:।
नीता रात्रि: क्षण इव मया सार्धमिच्‍छारतैर्या
     तामेवोष्‍णैर्विरहमहतीमश्रुभिर्यापयन्‍तीम्।।

मानसिक सन्‍ताप के कारण तन-क्षीण बनी
हुई वह उस विरह-शय्या पर एक करवट से
लेटी होगी, मानो प्राची दिशा के क्षितिज पर
चंद्रमा की केवल एक कोर बची हो।
जो रात्रि किसी समय मेरे साथ मनचाहा
विलास करते हुए एक क्षण-सी बीत जाती
थी, वही विरह में पहाड़ बनी हुई गर्म-गर्म
आँसुओं के साथ किसी-किसी तरह बीतती
होगी।