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मिलती नहीं बूँद चातक को / विमल राजस्थानी

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ज्ञात नहीं है, किस क्षण, किस पल, पिंजरे से पंछी उड़ जाये
पता नहीं फिर किस दुनिया में अपना नूतन नीड़ बनाये

तरह-की बातें कहकर
ज्ञानी उलझा देते मन को
कई दिशाओं में भटकाते-
अटकाते मानव-जीवन को

मिला नहीं कोई भी पंछी
जो उड़कर वापस आया हो
अनदेखी-अनजानी दुनियाँ-
की तस्वीरें ले आया हो
युग-युग से यह खेल चल रहा, सदियों से यह आँख-मिचैनी
चकित खड़ा कवि चोराहै पर, किस-किस को यह शीश नवाये

कोई कहता-देवालय के-
पत्थर पूजो, मुक्ति मिलेगी
कोई कहता-ध्यान लगाओ
मुक्ति-मोक्ष की शक्ति मिलेगी

स्वर्ग नर्क की परिभाषाएँ
भिन्न-भिन्न सब बतलाते हैं
ज्ञान-भक्ति के तानों-बानों
में हम और उलझ जाते हैं
सब के तर्क अकाट्य यहाँ है, पता नहीं रे ! सत्य कहाँ है
मिलती नहीं बूँद चातक को, यद्यपि मेघ घनेरे छायें

चार्वाक, गौतम, नीत्शे हैं
महावीर तप-तोम धुरंधर
कहीं मौन प्रार्थना, कहीं है-
शंखनाद, स्तुतियों के स्वर

कहीं योग-साधना तो कहीं-
पंचमकार मुक्ति देते हैं
तट-विहीन इस अंध-सिन्धु में
हम अपनी नैया खेते हैं
भटक रहे हम महाशून्य में, घाट नहीं है, बाट नहीं है
ऐसे में पिंजरे का पंछी, बोलो, क्या रोये, क्या गाये

गीता, रामायण, पुराण, कुरआन,
बायबिल मथ-मथ डाले
मिली न मंजिल, दिशा न दीखी
हुए हार हम काल-हवाले

दुख में, सुख में हँसना-गाना
मुक्ति-मोक्ष है मैंने माना
नित नूतन रागिनी, नहीं-
होता है कोई राग पुराना

इसीलिए आओ, हम गायें
झूम-झूम बाँसुरी बजायें
जब पिंजरे का द्वार खुले-
तो हम हँसते-हँसते उड़ जायें
खो जायें हम महाशून्य में सतरंगी पाँखें फैलाये