मिलन-स्थल: 4 / विष्णुचन्द्र शर्मा
कहाँ है यूरोप, एशिया, अमेरिका का
वह मिलन-स्थल जहाँ मिठास भी है शहतूत की
और कसैलापन हो नीम का।
मैं रोज विद्यापति से पूछता हूँ:
‘सबजन मिट्ठा’ प्रेम है या भाषा का जादू है
या नीम की तल्खी है, आज के प्रेम में!
युद्ध की यादों में बची प्रेम की निशानी
लंदन, पेरिस, बर्लिन मॉस्को में।
मैं घनानंद से पूछ रहा हूँ:
‘क्या वह नीम और शहतूत का
मिलन-स्थल था जहाँ से तुम
देखते थे ‘तरवार की धार पर
धावता है प्रेम!’
इटली की यात्रा में नहीं बताया था
मार्या ने।
पारी की कोटरी में नहीं
बताया एलक्सांदर ने।
सिर्फ जॉक ने भोपाल-ट्रेजिडी पर
फिल्म बनाते समय कहा था:
‘जसमिन’ का प्रेम घना था’।
पर उसकी फिल्म को अमेरिका में
कोई फाइनेंसर नहीं मिला।
और भोपाल में लाशें बिछाकर इंसानों की
एंडरसन भाग गया अमेरिका।
प्रेम और भागने का परिणाम भोग रही है
जनता जिसका पेट, आँखें, शरीर
न नीम-सा है उपचार योग्य।
न शहतूत-सा है भरोसा-योग्य।
फिर भी मुझे उम्मीद है
मिलन-स्थल है और रहेगा
उछाल लेती सागर की लहरों में
पहाड़ पर ढलती उच्छल नदी में
या मेरे एकांत में!
तुम देख रही हो न हमारा मिलन-स्थल।