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मुँह क्यों आज तम की ओर / हरिवंशराय बच्चन

मुँह क्यों आज तम की ओर?

कालिमा से पूर्ण पथ पर
चल रहा हूँ मैं निरंतर,
चाहता हूँ देखना मैं इस तिमिर का छोर!
मुँह क्यों आज तम की ओर!

ज्योति की निधियाँ अपरिमित
कर चुका संसार संचित,
पर छिपाए है बहुत कुछ सत्य यह तम घोर!
मुँह क्यों आज तम की ओर!

बहुत संभव कुछ न पाऊँ,
किंतु कैसे लौट आऊँ,
लौटकर भी देख पाऊँगा नहीं मैं भोर!
मुँह क्यों आज तम की ओर!