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मुक्ति की तलाश / अलेक्सान्दर ब्लोक / वरयाम सिंह

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मुक्ति की तलाश है मुझे।
पर्वत शिखरों पर जल रहे हैं मेरे अग्निकुण्ड
आलोकित हुआ है पूरा रात्रि-प्रदेश ।
सबसे अधिक चमक है मेरी अन्तस् दृष्टि की
और तुम हो दूर... पर हो भी क्‍या तुम ?
मुक्ति की तलाश है मुझे ।

गूँज रहा है आकाश में तारों का समूहगान ।
अभिशाप दे रही हैं मानव पीढ़ियाँ ।
तुम्‍हारे लिए शिखरों पर
जला रखे हैं, मैंने अग्निकुण्ड।
पर तुम हो प्रपंच ।
मुक्ति की तलाश है मुझे ।

गाते-गाते थक गए हैं तारे।
चली जा रही है रात ।
लौटने लगी हैं शँकाएँ
उन उज्‍ज्‍वल शिखरों से उतर रही हो तुम ।
खड़ा हूँ मैं यहाँ तुम्‍हारी प्रतीक्षा में ।
तुम्‍हारी और फैला दिया है मैंने अपना हृदय ।
तुम्हीं में है मेरी मुक्ति !