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मुनिया अक्सर अपने में ही / गरिमा सक्सेना

मुनिया अक्सर अपने में ही
रहती है कुछ खोई-खोई

जन्म लिया तो दुख छाया था
बोझ सदृश लगता था होना
विदा करो जल्दी अब इसको
कई वर्षों से है यह रोना
कब की खूंटे से बँध जाती
मिलता नहीं मेल है कोई

पढ़-लिख कर ज्यादा क्या करना
दादी ने शिक्षा को रोका
बाहर आया-जाया मत कर
माँ ने बार-बार है टोका
भैया को आजादी मिलती
सगी नहीं क्या? कह-कह रोई

करछी ,कलछुल ,चौका-बरतन
इन सबसे ही नाता जोड़ा
मुनिया ने अपने सपनों को
बिस्तर से उठते ही छोड़ा
सोंच रही है सुता भाग्य में
क्यों लिक्खी है सिर्फ रसोई