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मुन्ना के मुक्तक-4 / मुन्ना पाण्डेय 'बनारसी'

जवानी दौर है ऐसा क़दम अक्सर फिसलते हैं।
भले अंजाम हो कुछ भी पतंगे फिर भी जलते हैं।
तमन्ना मंज़िलों की है मगर मिटने से जो डरते-
फ़क़त वह कल्पना करते सफर में कब निकलते हैं।

फेंको उतार कर ऊपर से, सब दकियानूस ख़्यालों को।
परिणाम मुकम्मल मिलता है, थोड़ी-सी क़िस्मत वालों को।
पर कोशिश करने वालों की, क़िस्मत भी साथ निभाती है-
अंधेरों के पग टिकते हैं, कब सम्मुख देख उजालों को।
 
सिसकते साज का मंजर हूँ, खुलकर रो नहीं सकता।
मैं तुमसे दूर हो जाऊँ, कभी यह हो नहीं सकता।
मुक़द्दर से ही मिलते हैं किसी को प्रेम के आँसू-
ये वह अनमोल मोती हैं जिन्हें मैं खो नहीं सकता।

नयन का नीर लिखता हूँ, हृदय के गान लिखता हूँ।
जवानी जानेमन तेरी, मधुर मुस्कान लिखता हूँ।
हमारी लेखनी में भी भरा इस देश का शोणित-
मैं जिन्दाबाद जब लिखता तो हिन्दुस्तान लिखता हूँ।

हम अपना खून देकर भी चमन को सींच जायेंगे।
सलामत हो वतन मेरा सदा जयहिन्द गाएँगे।
तिरंगे में लिपटकर वीर का शव कह रहा ‘मुन्ना’ -
करें वादा हमारे खून का बदला चुकायेगे।

मैं आँसुओं से ज़िन्दगी के ख़्वाब लिख रहा हूँ।
मैं दर्द के उमड़े हुए सैलाब लिख रहा हूँ।
ये ज़िन्दगी फ़क़त कोई ग़ज़ल नहीं है यारो-
मैं इसलिए तो पूरी किताब लिख रहा हूँ।

दिल की दुनिया सबसे आली हर अंदाज़ निराला।
दिलवालों को अक्ल कहाँ देता है उपरवाला।
राजमहल की सब सुविधाएँ बौनी-सी लगती हैं-
हँसते-हँसते पी जाती है मीरा विष का प्याला।