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मुफ्त के बादशाह – चँदा मामा / रेशमा हिंगोरानी
Kavita Kosh से
फलक पे गूँज रही कल थी सितारों की हँसी,
बात ये सच है, क्योंकि रात में मैंने भी सुनी!
थे टिमटिमा रहे जुगनू की तरह वो सारे,
अमीर-ए-कारवाँ का ही न पता था वाह रे!
किसी साज़िश में जुटा था वो काफिला सारा,
उसी मर्क़ज़ पे टिका उनका था गिला सारा...
“सीना-ए-नभ को तो
हम रोज़ हैं ताबाँ करते,
कहाँ उसकी तरह
हैं रूप नित नए भरते?
है भरोसा क्या उसका,
रोज़ घटता-बढता है,
कहाँ वो रोज़ ही रौशन
जहाँ को करता है?
ये तो ज़ाहिर था
शिकायत वो
चाँद की
थे कर रहे,
बात अख्तर मियाँ की झूठ कहाँ,
सच थे कह रहे...
रोज़ तारे ही ग़र
शमअ से,
झिलमिलाया करें,
तो शहँशाह-ए-फ़लक़,
वो ही क्यूँ
कहलाया करें?!
27.07.93