मुर्गा बोला यूँ मुर्गी से
हूँ मैं सबसे हटकर,
जंगल सारा जाग उठे जब
देता बाँग मैं डटकर।
कलगी मेरी जग से सुंदर
चाल मेरी मस्तानी,
उड़ न सकूँ भले जीवन भर
हार कभी न मानी।
मुर्गी बोली फिर मुर्गे से
बस छोड़ो इतराना,
अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बन
अपनी - अपनी गाना।
करके देखो एक दिन ऐसा
मत देना तुम बाँग,
मानूँ तुम्हें मैं तीसमार खाँ
रुका रहे जो चाँद।