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मुल्क से अपने मिटेगा / हरिवंश प्रभात
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मुल्क से अपने मिटेगा, कैसे अब ये भ्रष्टाचार।
जब नहीं जनता है कोई जागरूक ईमानदार।
झूठ से भरपूर है जिस आदमी की बोलचाल,
आँख वाला क्यों कहेगा सच का उसको पासदार।
बन गया काहिल जो अपने घर के अन्दर बैठकर,
कौन मानेगा उसे कुछ कामवाला कामगार।
तू उसे पहचान ले वह मर्द बेईमान है,
जो पचाने के लिए लेता रहा सौदा उधार।
दुल्हनें ससुराल में ज़िंदा जलाई क्यों न जाएँ,
जबकि है हर गाँव-नगरी में दहेजी कारोबार।
जो हुआ संसार में पैदा बुराई के लिए,
वो भलाई क्या करे, जिसके नहीं अच्छे विचार।
देखकर मझधार जो माँझी है तट पर ही खड़ा,
नाव को ‘प्रभात’ वह कैसे करे दरिया से पार।