भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुसाफ़िर / पंछी जालौनवी
Kavita Kosh से
जाने कब ख़त्म होगा रास्ता
जाने कब तलाश पूरी होगी
जाने कब तक
हमें चलते रहना है
जाने कब तक
जायेगी ये जुस्तुजू
जाने कब इन
पावं की नींद पूरी होगी
अब तो चलते-चलते
कहां से सफ़र शुरू किया था
कहां तक का ये सफ़र है
भूल चुके हैं
कांधे पर ये जो गठरी है
किसका बोझ इसके अंदर है
भूल चुके हैं
रुकने को तय्यार नहीं हैं मुझमें
ये गर्दिशें ,और परेशानी तक
जाने कैसे चली आई है
मेरे क़दमों की गर्द
पेशानी तक
अब मेरी रूह
परिंदों के निशाने पर है
जाने कब उड़ा ले जाये
मुझको मेरी क़ैद से
छुड़ा ले जाये॥