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मुसाफिर / बिन्देश्वर प्रसाद शर्मा ‘बिन्दु’
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मुसाफिर हूँ मैं इस सफर का
चलता जाता हूँ
हमें न कोई मंजिल दिखता
बढ़ता जाता हूँ।
ठहर जाता यहाँ – वहाँ – कहीं
फिर भी चलता हूँ
दिवानगी है ऐसी मेरी
हँसता जाता हूँ।
गर आ जाये बाधा कोई
लड़ता जाता हूँ
कहीं आ जाये ऊँची चोटी
चढ़ता जाता हूँ।
घबराता नहीं तुफानों से
बहता जाता हूँ
जंगल रेत या पहाड़ों पर
कसता जाता हूँ।
चिंता फल की छोड़ दिया हूँ
धर्म निभाता हूँ
सब कुछ जाने ऊपर वाला
कर्म निभाता हूँ।
भरोसा खुद पर है हमारा
ना पछताता हूँ
हौसला बुलंद रखता हूँ मैं
इतर महकता हूँ।
मंजिल हँस जाती है मेरी
मैं इतराता हूँ
हार न मानो कभी तुम यार
मैं बतलाता हूँ।