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मुस्तैद व्यवस्था / प्रफुल्ल कुमार परवेज़
Kavita Kosh से
कश्मीर से कन्या कुमारी तक असंख्य
ख़ाली पड़े बँगलों में
शामिल है यह बँगला
अँधेरे के भीतर
सुरक्षित है वैयक्तिकता
बंद कपाटों के बीचों-बीच
भारी भरकम लोकतांत्रिक समाजवाद
लटक रहा है
और अधिकतर हिंदुस्तान
फ़ुटपाथ पर
सो रहा है
बेअसर रहती है
बँगले के भीतर निर्जीव वैयक्तिकता
मौसम
दीवारों से टकराते हैं
छत से फिसलते हैं
अग़ल-बगल से गुज़र जाते हैं
बंगले और फ़ुटपाथ के बीच
मुस्तैद है
व्यस्था.