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मृगनयनी(सोनेट) / अनिमा दास

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हे, मृगनयनी! किसने किया श्वेत वस्त्र तुम्हारा विदीर्ण?
कौन भर गया कुंतल में यह भस्मित आशाएँ विशीर्ण?
प्राचीन भग्न स्तूप—सा लगे, तिरष्कृत तन-तरु तुम्हारा
धरा की यह है कौनसी ऋतु, तप्त है मन-मरु तुम्हारा।

है दृगों में निष्ठुर आषाढ़, क्यों हृदय में है प्रचंड निदाघ
निश्चल, नीरव, निरुद्देश्य है क्षिति, मलिन हुआ शेष माघ
हे, कमलनयनी! किंवदंती के करुण क्रंदन की कामिनी!
क्यों हो मौन, इस महाद्वीप की मर्माहत मृण्मय मानिनी?

अधरों पर लिये क्षताक्त स्मिता का यह दृश्य विदारक
क्यों कर रही प्रतीक्षा त्राण की, जब समय बना संहारक?
स्मृति तुम्हारी मृत रहेगी इस मृत्युलोक पर, हे कुमारिका!
त्रस्त ध्वनि तुम्हारी होगी रुद्ध नभ गर्भ में, हे, अनामिका!

धमनी में धावमान ध्वांत से हो रही आत्मा तुम्हारी मुक्त
सखी, देखो! ...वेदना, सहर्ष अस्थियों से हो रही उन्मुक्त।
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