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मृण्मय चिन्मय का संगम / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

इंगित से करता है नर्तन।
भोला-भाला भटक रहा मन।

बँधा हुआ अज्ञात शक्ति से,
मृण्मय चिन्मय का संगम तन।

कहाँ रह गये हैं इस युग में,
पावन चन्दन उपवन-उपवन।

चली चीटियाँ सिन्धु थाहने,
पंगु कर रहे पर्वत-लंघन।

धरती कितनी बोझिल रहती,
क्या जाने ये कंकरीट वन?

जर्जर कस्ती हुई शान्ति की,
भौतिक लहरों का हैं गर्जन।

घोर उपेक्षा का शिकार है,
मनवीय मूल्यों का सर्जन।