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मेघ-भरी पलकों में अपनी / श्यामनन्दन किशोर

मेघ-भरी पलकों में अपनी
किसने बन्द किया पूनम को?
अपने नन्हें-से प्राणों में
कैसे साध लिया सरगम को?

है बाड़व की ज्वाला-जीवन;
कैसी मोहन है यह माया-
मरु के राही को भी मिलती
अपने तन की संगी छाया।

कैसे बँध जाती है धारा,
दो तट के दुर्बल संयम में?

सघन गगन में हँसती बिजली,
जलते प्रखर अमा में तारे;
कठिन शिखर पर गिरि के चढ़ती,
जाने, किसके लता सहारे।

कैसे आशाओं की किरणें,
मिल जातीं जीवन के तम में?

भेद नहीं विश्वास समझता-
मोम और पत्थर के भीतर।
निर्झर और बँधे कूपों में
तीखी प्यास न पाती अन्तर।

कैसे खो देता अपने को,
कोई तुनुक किसी निर्मम में?

(1.8.54)