मेरी तड़प का तमाशा बनाओ जान-ए-मन
कि सुकून मुझे अब इसी में मिलना है
इस कलेजे को चीर दो मेरे
और नसों को यूँ काट दो गोया
खून बाहर तमाम आ जाये!
या मेरी सब नसों को आपस में
इस क़दर तोड़-मोड़ उलझा दो
कि उसी दर्द में मरूं हरदम
तुम कभी याद ही ना आ पाओ!
या मुझे बेलिबास देखा था
सारी दुनिया को इत्तिला कर दो
शायद इससे ही शर्म आये कुछ!
शायद इससे ही कुछ क़रार मिले!
खैर, इतना ही तुम करो जानां
शेर मुझपे लिखे थे जो अब तक
बोल दो की वह सब पराये हैं
पीठ मेरी ना नाफ़ मेरी है
होंठ मेरे ना जुल्फ़ मेरी है
है वह सब बस ख़याल पर काबिज़
इससे जो दर्द उठेगा ना फिर
तुम मुझे याद नहीं आओगे!
चार पल यों भी पुरसुकून मिलें
मेरी तड़प का तमाशा बनाओ जान-ए-मन!