भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरी मैगडेलीन / बरीस पास्तेरनाक

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जैसे ही रात उतरती है मेरा पापी मन मेरे पास होता है ।
या कर्ज़ है जो मैं अदा करती हूँ बीते दिनों को ।
दुराचरण की यादें आती हैं
और चिपक जाती हैं कलेजे से ।
निज की यादें पुरुषों के मन की मौजों की दास थीं-
अपने ही ख़यालों से उपजी एक मूरख जैसी थीं
जिनको शरण देती थी- सड़क ।

ऐसी यादें कुछ क्षणों के लिए टिकती हैं
और तब आती है क़ब्र की स्तब्धता ।
संसर के अंतिम चॊर पर पहुँचकर
एक एलावास्टर बाक्स की तरहपना जीवन घट फोड़कर
रखती हूँ मैं तुम्हारे सामने ।

ओ मेरे गुरू, ओ मेरे त्राता,
अब मेरा क्या होगा ?
अगर नियति नहीं कर सकी मेरी प्रतीक्षा टेबुल पर,
जैसे रात के समय मेरी कपट-पूर्ण कला के जाल में प्रतीक्षा कर
फँस जाता है कोई नया शिकार ।

लेकिन मुझसे कहे कोई, पाप के क्या अर्थ हैं ?
क्या अर्थ हैं मृत्यु के, नरक के, प्रज्वलन और
जलते गंधक वाले नरक कुण्ड के ?

जबकि मैं सबकी आँखों के सामने बढ़ी हूँ
तुम्हारे साथ अपनी अनंत पीड़ा में,
किसी वृक्ष के संग बढ़ते क़लमी पौधे की तरह ।

और शायद, ओ प्रभु ईसा !
अपनी उरु-संधि पर तुम्हारे चरण धारण कर
मैं सीख रही हूँ क्रॉस के रूखड़े- चौपहले खंभे को
आलिंगन करने को अपनी चेतना खोती हुई;
तुम्हारे शरीर को अपनी ओर खींच कर संभालने के उपक्रम में
प्रस्तुत करती हुई तुम्हें क़ब्र में समर्पित करने के लिए ।