भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरी स्याही / अजन्ता देव
Kavita Kosh से
सारे उपादान उपस्थित हैं
मैंने ले लिया है एकान्तवास
प्रहरियों ने कर लिए हैं द्वार बंद
विघ्न का कोई अवसर नहीं
कलंक से भी अधिक
कालिमा है मेरी स्याही में
अपमान से अधिक
तीखी है नोक कलम की
प्रशंसा से अधिक चिकना है काग़ज़
मंत्रबिद्ध की तरह मुग्ध हूँ
स्वयं की प्रतिभा पर
फिर भी क्या है
जो रोक रहा है मुझे
न भूतो न भविष्यति रचने से
क्यों अक्षरों के घूम
लगते हैं भूलभूलैया से
यह कौन सा तिर्यक कोण है
जहाँ अपनी ही आँख
दूसरे की हुई जाती है ।