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मेरे मन, सीख मान / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

आसावरी ध्रुपद

मेरे मन, सीख मान।
हो जा तू दिव्यकान्त, अग्निदग्ध, विभावान,
मेरे मन, सीख मान।

वितरण करता सुगन्ध मलय पवन भ्रमणलीन,
किन्तु, स्वयं रहता संसर्गरहित, गन्धहीन,
होता क्या नील गगन मेघ-धूम से मलीन?
तब तू क्यों है विषाद से विवर्ण विकल म्लान?
मेरे मन, सीख मान।

फैला कर तन्तुनाभ के समान तन्तुजाल,
रक्खा है अपने पर तूने आवरण डाल,
उगल रहा है तुझमें विषधर अंगार-ज्वाल,
कुचल डाल उसके फण-आतपत्र का वितान।
मेरे मन, सीख मान।

जब तक है द्वन्द्व व्याधि, तब तक है ताप-ज्वर,
जब तक है भेद-भ्रान्ति, तब तक है व्यथा-भार,
जब तक दारुण विकार, तब तक निबिड़ान्धकार,
हो जा अब निर्विकार, दोषरहित, मननवान।
मेरे मन, सीख मान।