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मेरे मन का उन्माद गगन बदराया / हरिवंशराय बच्चन

मेरे मन का उन्माद गगन बदराया।

युगल पँखुरियों से धरती पर
ढलक परा जो पानी,
मेरे अवसादों की उसमें
थी संपूर्ण कहानी,
किंतु आज सर छोटे, निर्झर
छोटे, छोटी नदियाँ,
मेरे मन का उन्माद गगन बदराया।

छिपे दिवाकर, चाँद, सितारे,
छिपी किरन उजियारी,
छिपी कहीं उमँड़े मानस में
डरकर बुद्धि बिचारी,
बिजली बनकर कौंध रही है
हृदय सौध के ऊपर
सुधि उसकी जिसने युग-युग से तड़पाया।
मेरे मन का उन्माद गगन बदराया।