मेरे शब्दों / आनंद गुप्ता
शब्दों में ही जन्मा हूँ
शब्दों में ही पला
मैं शब्द ओढ़ता बिछाता हूँ
जैसे सभ्यता के भीतर
सरपट दौड़ता है उसका इतिहास
सदियों का सफर तय करते हुए
ये शब्द मेरे लहू में दौड़ रहे हैं
मैं शब्दों की यात्रा करते हुए
खुद को आज
ऐसे शब्दों के टीले पर खड़ा
महसूस कर रहा हूँ
गोकि
ढेर सारे झूठे और मक्कार शब्दों के बीच
धर दिया गया हूँ
क्या करूँगा उन शब्दों का
जिससे एक बच्चे को हँसी तक न दे सकूँ
एक बूढ़ी माँ की आखिरी उम्मीद भी
नहीं बन सकते मेरे शब्द
मेरे शब्द नहीं बन सकते
भूखे की रोटी
एक बेकार युवक का सपना भी नहीं
क्या करूँगा उन शब्दों का
जिनसे मौत की इबारतें लिखी जाती है
जिनसे फरेबी नारे बनते है
मेरे शब्दों!
तुम वापस जाओ
जंगलों को पार करो
खेतों में लहलहाओ
किसी चिड़िया की आँखों में बस जाओ
नदियों को पार करो
सागर सा लहराओ
जाओ!
कि तुम्हे लंबी दूरी तय करनी है
बनना है अभी थोड़ा सभ्य।