मैं अभी खेत जोतकर
धीरे-धीरे अंकुरित हो रहा हूँ
कुहासे भरी रात के बीच
और तुम, सड़क के उस तरफ़ लहराती हुई
नदी की तरह बहकर, दूर निकल गई
आसमान की तरह साफ़ होगी तुम्हारी देह
जो अभी भी झलकती है, तुम्हारे ही अन्दर
नदी में, टिम-टिम करती हुई !
उसे छूने के लिए मैं बहना नहीं चाहता
क्योंकि छूट गए पीछे, अनगिनत लोग ।
मैं खेत में अंकुरित हो रहा हूँ,
और मेरे ऊपर औंधे लेटी हुई तुम!
सहलाता है मेरे प्यार को एक किसान
लबालब भरी हुई क्यारियों की तरह,
जिसमे टिमटिमाती है तुम्हारी देह
फिर धरती सोख लेती है उसे
लेकिन मैं बेचैन हो जाता हूँ
कहीं धरती की सतह पर छूट तो नहीं गईं
तुम्हारी देह, तुम्हारी आँखे
क्योंकि मैं अंकुरित हो रहा हूँ
मेरे भीतर से फूटेगा कौन
मेरे भीतर खाली है आत्मा
एक पहाड़ की तरह
जहाँ से हवा गुजरती,मैं ख़ुद को तराशता
लेकिन सीने पर पाल नहीं बाँधी
जिसे तुम सहारा देती, एक नाविक की तरह
आसमान के दूसरे छोर पर बैठी तुम
याकि जिसके सहारे खुद ही उतर पाऊँ
तुम्हारे भीतर, इस नदी में
तैरूँ उस तरफ़
जहाँ गायें चरती हैं, जहाँ मोर नाचते हैं
जहाँ पतलो के भूए तपती रेत पर बिछे,
ऊपर तुम्हारी देह देख रहें हैं
और पहाड़ तुम्हें प्रेम करना चाह रहें हैं
बस, उसी तरफ मैं अंकुरित हो रहा हूँ
एक किसान के सहारे,
एक नाविक के सहारे,
एक पहाड़ तराशती हवा के सहारे !