मैं आम के वृक्ष की छाया में लेटा हुआ हूँ। कभी आकाश की ओर देखता हूँ, कभी वृक्ष में फूटती हुई छोटी-छोटी आमियों की ओर। किन्तु मेरा मन शून्य है।
मेरे मन में कोई साकार कल्पना नहीं जाग्रत होती। मैं मानो एकाग्र हो कर किसी वस्तु का ध्यान कर रहा हूँ; किन्तु वह वस्तु क्या है यह मैं स्वयं नहीं जानता। मैं असम्बद्ध रीति पर भी कुछ नहीं सोच पाता; स्थूल वस्तुओं का जो प्रतिबिम्ब मेरी आँखों में बनता है उस की अनुभूति मेरे मस्तिष्क को नहीं होती। मैं मानो निर्लिप्त, निर्विकार पड़ा हुआ हूँ- समाधिस्थ बैठा हूँ।
किन्तु इस समाधि से मेरे मन को शान्ति या विश्राम नहीं प्राप्त होता, मेरी मन:शक्ति में वृद्धि नहीं होती। मैं केवल एक क्षीण उद्वेग से भरा रह जाता हूँ।
यह एक जड़ अवस्था है, इस लिए इसमें स्थायित्व नहीं हो सकता। आज ऐसा हूँ, कल मेरा मन एकाएक जाग उठेगा और अपनी सामान्य दिनचर्या में लग जाएगा। जागने पर भी उसमें वह पूर्ववत् स्फूर्ति नहीं आएगी; वह असाधारण प्रकांड चेष्टा करने की इच्छा नहीं होगी। केवल एक आन्तरिक अशान्ति, एक उग्र दुर्दमनीय कामना फिर जाग उठेगी, और उस की पूर्ति को असम्भव जानते हुए भी मैं विवश हो जाऊँगा...उन्मत्त-सा इधर-उधर भटकने लगूँगा।
किन्तु वह अवस्था चेतन होगी, इसलिए उसमें स्थायित्व भी होगा।
दिल्ली जेल, 10 जुलाई, 1932