मैं कवि के भावों की रानी
मेरे पायल की छूम छननन गुंजित कर देती जग उपवन
जड़ भी हो उठते हैं चेतन पाषाणों को मिलती वाणी
भर जाती शुषमा से मधुकर अलसित पलकों में स्वपन सघन
मैं कवि की कुटिया में क्षण क्षण आती अम्बर से दीवानी
मेरे अस्फुट कंठों का स्वर नादित होता जग वीणा पर
दोहरा जाता है ये सागर मेरे अंतर की ही वाणी
कुहुकी कोयल काली काली मैं मधुमट भर लायी आली
उठ कर ले सपनों की प्याली आज ढलेगी मनमानी
मैं कवि के भावों की रानी