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मैं रोज़ सेब खाना चाहती हूँ / शुभम श्री

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मैं रोज़ सेब खाना चाहती हूँ
मैं रोज़ अनार भी खाना चाहती हूँ
मुझे आम भी पसन्द हैं और चिनिया केले भी
अनानास भी अच्छा लगता है, चीकू भी, अँगूर भी
कीवी कभी खाए नहीं, ब्लूबेरी और तमाम तरह की बेरी पता नहीं कौन लोग खाते हैं
कई सालों तक इन फलों को मैंने केवल निहारा है
सिर्फ इस आस में कि देखने से भी शरीर में ख़ून बढ़ेगा

मेरे पास क्या नहीं था
बढ़िया नेपाली गाँजा, असल मलाणा क्रीम
जब चाहो तब ओल्ड मॉंक, स्मिरनॉफ या बीपी
मालबरो क्लोव या क्लासिक माइल्ड
ख़रीदना नहीं पड़ता था
मिल जाता था, बस, कोई भी पिला देता था
लेकिन चौंसठ रुपए का एक सेब ख़रीद लेने की हिम्मत नहीं हुई कभी
अँगूर का मौसम आकर चला गया
बड़ा दुख लगा
लीची आई तो मन बनाया अबकी लीची खाऊँगी
बहुत मोल-मोलाई के बाद भी डेढ़ सौ रुपए से नीचे कोई तैयार ही नहीं होता था
मन हुआ वैशाली एक्सप्रेस पकड़ कर मुज़फ्फपुर चली जाऊँ
फिर तत्काल का किराया याद कर के मन मार लिया



मैं चाहती हूँ केवल कविता लिखूँ
मतलब केवल कविता लिखना मेरा काम हो
मैं कहानियाँ भी लिखना चाहती हूँ, उपन्यास भी
अब या तो मैं सेब खा लूँ या कविता लिख लूँ

काश ! दुनिया इतनी आरामदेह होती कि
मेरा अपना एक कमरा होता (छत पर नहीं, वहाँ गर्मी होती है)
एक लाइब्रेरी होती जिसमें सब हार्डबाउण्ड किताबें होतींं
(जिन्हें कहीं से चुराया न गया होता)

हर रोज़ सेब खाने की सहूलियत होती
काश ! कविता लिखने से सेब मिल पाता !