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मैं शहर में था अजनबी जैसे / विनोद तिवारी

मैं शहर में था अजनबी जैसे
मेरी पहचान खो गई जैसे

मैं यहाँ हूँ नहीं हूँ, बेमानी
कच्छ के रन में इक नदी जैसे

ख़ालीपन बढ़ रहा है भीतर का
रक्खी हो रेत की घड़ी जैसे

थी मनोकामना भी जुगनू-सी
घुप अँधेरे में रोशनी जैसे

दर्द को बूँद-बूँद पीती है
पूस की रात चाँदनी जैसे

तेरी यादें सहेजकर रक्खीं
बरसों पहले की डायरी जैसे