भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैली हुई आ मन-झील बाबा / सांवर दइया
Kavita Kosh से
मैली हुई आ मन-झील बाबा
गाभां थकां उधाड़ो डील बाबा
कुण जाणै कद धुड़ जावै ओ घर
भींतां में रैवै नित सील बाबा
रास इत्ती ना ताणो सांस घुटै
दिरावो अब तो कीं ढील बाबा
ऐ दुख सोखता फिरै म्हानै इंयां
सोधै मांस जाणै चील बाबा
पासै री कांई किंयां ई पड़ै
सूक थारी थारी लील बाबा