भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मोरी चुनरिया / त्रिभवन कौल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैली घनी मोरी चुनरिया
कित जावूं धोवन चुनरिया
जा पनघट पे जा जा बैठी
मैला जल, मैली गगरिया (१)

ज्ञान की प्यासी दर दर भटकी
सत्संगों में जा जा अटकी
मिलन वासे कोउ न करावे
बस होरी खेलें फोड़े मटकी (२)

पनघट का जल दूषित भयो रे
फिसलन से डर लगयो रे
डूबन लागूं कौन उबारे
आस्था मोरी छिन्न भिन्न भयो रे (३)

भटकाव मन का है बेकार
आड़म्बर से भरा संसार
खुद के भीतर जो झांकी मैं
मिलन वासे, हुआ विचार (४)

चुनरिया मोरी मस्त भयो री
वा के रंग मेँ अब रंगयो री
मैं राधा ना मीरा बन पायी
उनके सरीखा सुख पायो री (५)